पुस्तकों को सहजने, संरक्षित करने और उन्हें बढ़ावा देने के अलावा पढ़ाई के प्रति खासकर युवाओं में ललक जगाने के लिए भी हर साल 23 अप्रैल को विश्व पुस्तक दिवस मनाया जाता है। इस अवसर पर साहित्यकारों का मानना है कि समाज को जो जितना बेहतर पढ़ेगा, उतना ही बेहतर लिखेगा।
डिजिटल जमाने में जहां पुस्तकों की विश्वव्यापी सुलभता बढ़ी है, वहीं साहित्य के प्रति कम होती रुझान से चिंता बढ़ी है। वहीं लमहीं स्थित विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद और आजमगढ़ स्थित दारुल मुसन्नेफिन शिबली की लाइब्रेरी लाखों अनमोल किताबों को डिजिटल स्वरूप में लाने के लिए सरकारी बजट का बाट जोह रही है।
लमहीं स्थित प्रेमचंद स्मारक न्यास के अध्यक्ष सुरेश चंद्र दूबे कहते हैं कि प्रेमचंद के साहित्य की प्रासंगिकता आज भी है। उनकी रचनाएं कालजीवी हैं। भारत सरकार आज बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ आज अभियान चला रही है, लेकिन मुंशी प्रेमचंद ने सवा सौ साल पहले अपने उपन्यासों के माध्यम से यह संदेश दिया था। उनका कहना है कि डिजिटल के जमाने में भी किताबों से प्रेमचंद की पहचान बची हुई है। इन्हें लाइब्रेरी को डिजिटल रूप में करने के लिए और शोध कायों को बढ़ावा देने के नाम पर नेताओं से कोरा आश्वासन मिलता है। शोध केंद्र की स्थापना कागजों में कर दी गई, लेकिन उसमें संसाधनों का अभाव है।
डिजिटल युग में साहित्य खत्म नहीं हो रहा बल्कि इसका स्वरूप बदल गया है। पहले लोग किताब की तलाश में भटकते रहते थे लेकिन अब मोबाइल फोन पर इंटरनेट की पहुंच से लोग कहीं भी ऑनलाइन साहित्य लिख और पढ़ रहे हैं।
इस मुद्दे पर दारुल मुसन्नेफिन शिबली अकादमी के सीनियर रिसर्च फेलोशिप उमैर सिद्दीक नदवी कहते हैं कि डिजिटल जमाने में किताबों और लेखकों को नुकसान हुआ है। उर्दू पढ़ने वालों की संख्या कम होती जा रही है। इस जमाने में लोग अब किताबी ज्ञान की गहराई में नहीं जाना चाहते।
आजमगढ़ जिले के अतरौलिया निवासी वरिष्ठ साहित्यकार राजाराम सिंह चिंता जताते हुए कहते हैं कि अब लिखने वाले ही नहीं पढ़ रहे। हिंदी के सुविख्यात कवि रामधारी सिंह दिनकर कहा करते थे कि 100 पेज पढ़ने के बाद एक पेज लिखो।
नौजवान पीढ़ी को पढ़ाई के प्रति रुझान बढ़ाने की जिम्मेदारी साहित्यकार और राजनीति दोनों पर है। जो समाज पढ़ता नहीं, वो बढ़ता नहीं। समाज को पढ़ने का सबसे बेहतर माध्यम अखबार ही है। इसके लिए लेखकों को रोज अखबार जरूर पढ़ना चाहिए।